कितनी सीता: कितनी अग्निपरीक्षा : कितनी भू-समाधि
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रखती थी यह अच्छा हुआ कि उसे पता चलने के लिए वह रही नहीं, अन्यथा उस पर पता नहीं, क्या
बीतती । mlesa lhrk us fy[kk Fkk
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ykuk esjs शkjhfjd vUr dk ,dek= y{; gS A rqEgsa QdZ vkt नहीं rks chl iPphl lky ckn पड़ेxk ysfdu अगर मैं सच हूँ, मेरे
रोम-रोम में सच में ख़ून की ऑंसुओं की नारकीय पीड़ा एक एक क्षण प्रवाहित रही है, और उस पीड़ा में तुम्हारे प्रति अपने विवश प्रेम,
स्नेह और समर्पण की पराकाष्ठा है तो असर पड़ेxk t+:j vkSj ml fnu rqe izk;श्चिr ds fy, mu lc ls जो मेरे हैं, मेरा परिवार, कुछ एक
शुभचिन्तक (तुम तो न कभी मेरे थे न
तुमने मुझे अपना माना होगा, तुम्हारे लिए शायद मैं एक
कमोडिटी ही थी) जो चाहते थे कि मैं दीर्घायु रहूँ, अपनी तमाम
क्षमताओं के साथ उनके सपनों को पूरा करुँ, कुछ नहीं तो कम से कम अपने जीवन को सुखी, सार्थक और समृद्ध बना सकूँ और वे ख़ुश होते, मात्र मुझे ख़ुश, सुखी और संतुष्ट देखकर माफ़ी ekWax ysuk ftuds lkFk rqeus HkkoukRed cs:[kh
fn[kkbZ gks A gkWa eSa rqEgsa माफ़ djds tk jgh gwWa
fQj dHkh rqels ;k fdlh vkSj ls Hkh dHkh u feyus ds fy, A तुम्हारी समझ क्या है, ये तुम्हारी
तरफ़ से समझने की कोशिश की है इन लाइनों में, हो सके तो समझाना ख़ुद को
कि तुम ऐसे क्यों हो, और कैसे हो सकते हो !
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यह वृत्तान्त जो किन्हीं
पन्नों में लिखी कहानी थी, वृत्तान्त
था, काल्पनिक या पौराणिक था/थी कुछ
पता नहीं । पता नहीं कहॉं से रद्दी में एक और सीता को ही मिल गई थी, जिस पर अपना ही नाम अंकित देखकर सीता ने सहज उत्सुकता से उठा लिया था और उसे अपने पास रख लिया था, कभी रिक्त समय मिल जाने पर पढ़ने के लिए । कहने की आवश्यकता नहीं कि
सीता ने उसे अवश्य पढ़ा होगा । ml पत्र ij fnu] rkjh[k vkSj le; Hkh vafdr
Fkk 1240&100 (ih,e) 20A10A2008 ।
और जब आज जब कुछ ज़्यादा ही लड़कियों द्वारा आत्मसंघर्ष से
जूझने, और अन्तत: स्वयं को समाप्त कर लेने
की विवशता की घटनाओं को देख सुन
रही है सीता तो वह क़ागज़ का पूरा पुर्जा ऐसे ऑंखों के सामने तैर जाता है जैसे कोई
जीते जी अपनी विवशता की कहानी कह रहा हो, वह पुर्जा उस सीता की गुहार सुनाता है, बताता है, मुझे बचा लो, हालांकि
मुझे जीवन की कोई चाह नहीं, भौतिकता के सुख-साधनों के प्रति
कोई विलासिता नहीं, मेरा अपना स्वस्थ दिल, दिमाग़ और मस्तिष्क है । भगवान का दिया हुआ सुंदर सधा हुआ विवेक भी है ।
मैं भी देश, समाज और परिवार का एक उपयोगी घटक साबित हो सकती
हूँ लेकिन ‘’मन नहीं
है’’ । ये ‘मन नहीं है’, शब्द हाल ही में एक बच्ची की
भी अन्तिम गुहार के रूप में मन, दिल,
दिमाग़ को चीर गए थे । उस पिता पर क्या ग़ुज़री होगी, जिसने
अपने लिए छोड़े संदेश में अपनी बेटी के ये शब्द सुने होंगे । वह पिता, समाज हम और आप उस बच्ची और लाखों उस जैसी बच्चियों, लड़कियों, महिलाओं के मन को इतना मज़बूत क्यों नहीं बना पाए कि इस मन
को मोड़ कर हवाई जहाज़ का खिलौना बनाकर उड़ाकर फेंक सके और एक नई ताक़त और मज़बूती
के साथ अपने लिए न सही अपने अपनों के लिए 25 प्रतिशत ही सही,
सहजता से अपने जीवन को संचालित कर सकें ।
कहीं हम एक समाज के रूप में बुरी तरह से असफल हुए हैं । हर मामलों में ऐसा नहीं
लगता कि स्वयं को खत्म कर लेने का जोखिम उठाने का विचार सिर्फ उस एक पल का
उतावला निर्णय हो । कभी-कभी यह निर्णय पॉंच, दस नहीं पन्द्रह
और बीस साल तक के सतत एकतरफ़ा आत्मसंघर्ष के बाद इस रूप में अन्तत: परिलक्षित
होता दीखता है । जि़म्मेदारी किसकी है, किसकी होनी चाहिए, इस सब से जिसका जो प्रिय गया है, वह वापस नहीं आ जाता
। यहॉं लड़कियॉं ही नहीं, लड़के भी इसी मनोवृत्ति का शिकार
होते हैं, इसके उदाहरण भी कम नहीं हैं ।
इस श्रेणी में
चार वर्ग ज़्यादा प्रभावी तत्व के रूप में होते हैं जिनमें दो तो प्रभावित होते
हैं और एक प्रभावी होता है तो एक (समाज) अपरोक्ष रूप से प्रभावित भी होता है और
प्रभावित भी करता है । प्रभावित तो ऐसा व्यक्ति ख़ुद जो ऐसा निर्णय करता है, दूसरा
उससे जुड़े प्रियजन, परिजन, दोस्त और
शुभचिन्तक, तीसरा वह व्यक्ति या कारण और चौथा समाज सब होते हैं और इसके साथ अपरोक्ष रूप से
मानवीयता सिसकियॉं लेती हैं, जो सुनायी तो नहीं पड़तीं, लेकिन अपनी चपेट में मानव समाज के छोटे-छोटे मोतियों जैसे, ऐसे कितने ही मनों को कब कैसे और किस तरह परास्त करके आत्मा और शरीर से
भी रहित कर देती हैं, और उस माला के आधार धागे में किस तरह
की खाई, ख़ालीपन के खाके बना देती है, यह ऑंकड़ें
बता देते हैं आत्म-हनन के ।
आज सीता के
सामने यही सब बातें उमड़-घुमड़ रही है । बार-बार उस परचे की इबारत ऑंखों के सामने घूम
रही है । क्या उस वाली सीता-पता नहीं काल्पनिक या यथार्थ का राम ( राम तो नहीं
था वह, लेकिन उसके लिए तो राम ही होगा शायद । क्या कर रहा होगा, क्या विचार होंगे उसके आज । अगर ऐसा सच ही कोई होता, तो क्या उसे कोई पछतावा होगा, क्या उसे अहसास हुआ
होगा कि रिश्ते होते क्या हैं, विश्वास क्या होता है और
उसको निबाहना किसको कहते हैं । स्वार्थ और दायित्व की परिभाषा क्या है । उस
परचे के अलावा कुछ एक पन्नों पर दो लाइनें और लिखीं थीं, जो
सीता की ऑंखों के आगे झूल रही थीं-
Ckkj&ckj iwNrk gS oks esjh oQk dk lcc]
rqe ही, बेवफ़ा D;ksa ugha gks tkrs !
बेवफ़ा होना कितना मुश्किल है, कैसी विवशता है ख़ुद की निष्ठा को न बदल पाने की यह तो
राजा हरीशचन्द्र बता पाते कि देश, काल और समय के नियमों से बद्ध होकर पैसे के अभाव में नज़रें बचा कर ख़ुद के पुत्र का शवदाह
करना उनके लिए क्या और क्यों मुश्किल था । सत्य और असत्य, कृत्त्य और अकृत्त्य में इतना असमंजस क्यों । दीपावली पास आ रही है । सीता के मन में यह विचार भी आ रहा
है कि अभी विजयादशमी/दशहरा बीते कुछ ही दिन बीते होंगे । भगवान राम, सीता के साथ रावण के संहार के बाद जब अयोध्या लौट रहे
होंगे शायद 21 दिन जैसा कि खगोलीय घटनाओं के गणन के बाद प्रमाणित हो तो चुका है, लेकिन
गहन अध्ययन और लाखों प्रामाणिक ग्रन्थों के नष्ट-भ्रष्ट कर दिए जाने के
परिणामस्वरूप संशय है कुछ बुद्धिजीवियों को, कोई बात नहीं, सबको अपनी-अपनी तरह से सोचने का अधिकार है लेकिन यह अधिकार अज्ञान या
अनभिज्ञता का सहारा लेकर दूसरों पर थोपा नहीं जाना चाहिए । हॉं तो सीता यह सोच रही
थी कि 21 दिन लंका से अयोध्या पैदल चल कर पहुँचने में लगते हैं, उस हिसाब से राम और सीता कितना समय साथ बिता पाए होंगे । 21 दिन यह और
अयोध्या में राम के राजतिलक के बाद धोबी की लोक-आलोचना से राम और सीता के दूर हो
जाने के (संयुक्त) निर्णय लेने के बीच ! उस बीच भी सारे
लोकोपचार में लगने वाले समय के बीच कितना समय दोनों को मिला होगा मात्र एक दूसरे
के लिए । राम का वनवास देखें तो एक बार हुआ लेकिन राम और सीता का वनवास उतनी ही
बार हुआ जितनी बार सीता वनवास हुआ । पहली बार सबसे छोटा वनवास माता कैकयी द्वारा, क्योंकि उस समय उनके पति श्री राम उनके साथ थे, तो
वह सीता के लिए वनवास होते हुए भी वनवास नहीं था । दूसरी बार उससे बड़ा वनवास जब
रावण ने उनका हरण किया और कैद कर दिया
लंका में । इसके बाद सीता की अग्नि-परीक्षा । सीता ने राम से नहीं पूछा और
न ही अग्निपरीक्षा देने को कहा कि जिस बीच वह लंका में बद्ध रही, उस दौरान के समय के लिए राम सफाई दे और अग्निपरीक्षा भी दे । पवित्रता के
मायने, मानक और कसौटी बहुत अलग थे, हैं
और रहेंगे भी सदा । और तीसरी बार जब राम
ने उन्हें प्रजा के हर घटक यानी अयोध्या के हर नागरिक यानी एक धोबी के विचार के
अनुरूप राजा के रूप में अपनी रानी का त्याग किया और अन्तिम बार जब सीता ने इन सब
वनवासों के प्रति-उत्तर में धरती माता के सीने में समाकर स्वयं को शरीर रूप से
हमेशा के लिए अयोध्या से अदृश्य कर दिया । शायद अब की सीता अंतिम बार यह कहती कि
अब किसको वनवास दोगे राम ? क्या मैं सिर्फ़ त्यागने के
निमित्त हूँ ? और कितनी बार, और कितना,
त्यागोगे मुझे ? लेकिन वह रिश्ता सतयुग के
राम और सीता का था, आज की सीता और उसके कथित राम का नहीं ।
सीता का त्याग था तो राम का भी त्याग था । आज भी राम और सीता यानी सीता-राम
पवित्रतम रिश्ते का सर्वोत्कृष्ट दृष्टान्त है बिना किसी धोबी के संशय के ।
वह भी तब जब आज धोबी के बेहद प्रसंस्कृत रूप अधिकाधिक संख्या में समाज में यत्र-तत्र सर्वत्र बिखरे हैं । हालांकि आज भी लोग तमाम बातें कहते हैं, लेकिन सीता के चरित्र के बारे में वे बातें नहीं होतीं । कुछ यूँ होती
हैं कि सीता ने लक्ष्मण रेखा क्यों पार की, न करती तो रावण उनका हरण नहीं कर पाता । अग्निपरीक्षा तो
सीता को भी देनी पड़ी थी, आप किस खेत की मूली हैं, लोकनिंदा में बड़ी ताकत होती है, राजा राम को भी अपनी सीता जैसी पत्नी को त्यागना पड़ा था आदि-आदि ।
लेकिन कभी सीता की गरिमा पर न ही सतयुग का रावण और न ही आज के रावण अंश मात्र भी
संदेह का बीज भी अपने विचार में ला सके । उनकी प्रज्ञा को प्रणाम करने का मन करता
है । राम के चरित्र से सीता की पहचान राम के अभिन्न अंग के रूप में सतयुग से लेकर
आज हज़ारों वर्षों बाद तक भी अमिट है । अगर राम ने सीता की तरह ही स्वयं भी त्याग
का जीवन जीकर, वह भी महलों में रहते हुए भी न निभाया होता तो
समाज और जनमानस सीता को वह स्थान नहीं दे पाता । नारी की गरिमा की जि़म्मेदारी
नारी से ज़्यादा पुरुष की है, यह सत्य कालातीत है लेकिन इस
तरह से बिसरा दिया गया है कि नारी की गरिमा का मानसिक हनन एक सामाजिक अपचेतना का
अंग बन गया है और अपसंस्कृति में एक बच्ची, किशोरी, युवती, महिला, बुज़ुर्गा कब
मात्र एक योनी बनकर रह गई पुरुषों के लिए, यह उन्हें भी पता
नहीं चला होगा क्योंकि उनको तो राम के उत्कृष्ट चरित्र का पर्याय भी कभी समझ
नहीं आया होगा, जो उन्होंने स्थूल तौर पर लिया, कालान्तर में उसे ही अपनी पीढि़यों को दिया । लेकिन आज भी हमारे आपके आस-पास सीता जैसे
चरित्र मिलते हैं, हम उनके साथ यही प्रज्ञा भावना गरिमा के साथ रख सकें तो इन अग्निपरीक्षाओं का अन्त
हो सकता है । हालांकि चारित्रिक पतन तो हर
स्तर पर हुआ है, लड़कियॉं भी सीता न रही और पुरुष भी राम
नहीं रहे । बल्कि उन्हें न तो सीता की पहचान है और न स्वयं की, राम के चरित्र की तो बात ही अलहदा है ।
अचानक मंदिर
के घण्टे की आवाज़ से सीता का ध्यान भंग हुआ, सांझ होने जा रही थी, दीया-बत्ती का समय हो रहा था और न जाने सीता कितनी देर से इसी वैचारिक
जंग में योद्धा बने विचारों की तलवार ताने हुए थी । सीता कभी-कभी सोचती कि काश इन
विचारों को क़ागज़ पर ही उतार लिया होता, एक कहानी या लेख तो
बन ही जाता । लेकिन अपने इस शौक को न जाने
कब से तिलांजलि दे चुकी है सीता । अब तो वह अपने परिवार के सुख दुख में ही इतनी
रमी है कि कितनी ही कहानियॉं, किस्से और कविताऍं उसके
दिमाग में जन्म लेती हैं, और वहीं जाकर किसी कोने में प्रसुप्त हो जाती हैं । अगर इनसान के दिमाग
की कोई चिप होती तो सीता के दिमाग की चिप की मेमोरी से कोई एक फोल्डर से एक वृहद
रचनावलि तैयार की जा सकती थी ।
रात से फिर सीता
उसी धागे के सिरे को पकड़कर दिमागी दुनिया में गोते लगा रही है कि ऐसा क्या होता
होगा, कैसे सम्भव है धोखे से ही किसी पर थोप
देना अपने सुविधा रूपी जीवन के चयन का
फैसला । केन्द्र में वही रद्दी में मिले पन्नों में दर्ज सीता को खोजता विश्लेषण
चल रहा था । कहीं वह सच तो नहीं था । 2008,
इन्हीं दिनों की बात होगी बीस अक्तूबर । अगर वह कहानी नहीं सच की किसी
डायरी की इबारत होगी तो कैसी होगी वह सीता, जो रही तो नहीं ।
काश मैं जान पाती अपनी सहनाम धारी को ।
काश उसमें उसके राम का भी कोई पता-ठिकाना होता, तो वह ज़रूर कोशिश करती उससे मिलने की, उसे देखने की और उस सीता को उसमें कहीं ढूँढने की । उससे पूछती, शायद वह कोई लेखक हो, जिसकी वह सीता एक कल्पना
मात्र हो । लेकिन न जाने क्यों सीता को आये दिन के ऐसे घटनाक्रम में वही सीता
दिखाई पड़ती है, लड़कियों में अधिक और लड़कों में कम । आत्महत्या
की घटनाओं में लड़कों का भाव अधिकतर पाने के जुनून वाला होता है और लड़कियों में
भूल न पाने की विवशता का ।
पर सवाल इसी ऊहा-पोह से जाकर फिर टकराता है कि क्यों मुश्किल नहीं असम्भव
है कुछ लोगों के लिए धोखा देना और क्यों हर दिन का खेला है कुछ लोगों के लिए अपने
अपनों से भी झूठ बोलना उन्हें धोखा देना उनके भरोसे को धीरे-धीरे योजनाबद्ध
तरीक़े से तोड़ना । क्यों हम एक बार, सही समय पर, सही
तरीक़े से सच बयान नहीं कर देते । क्यों हम इन्तज़ार करते हैं कि हमारे धोखे को
दूसरा अपने आप समझ जाए और ख़ुद ही दूर चला जाए हम से और हमारे ऊपर आरोप भी न आए
धोखे का । बड़ी शातिराना है यह सोच । मनोवैज्ञानिक कारण तो हैं ही । जब हम लम्बे
समय तक एक ही स्थिति, बात, या व्यक्ति
के बारे में सोच विचार करते हैं, करते ही रह जाते हैं, उसके सवाल-जवाब हमेशा एकतरफ़ा ही होते हैं, जो तत्व
या व्यक्ति इससे जुड़े हैं वे क्यों दूसरे व्यक्ति को समुचित रूप से सूचित करने
की जि़म्मेदारी से कतराते हैं । कोई भी इतना मूर्ख तो नहीं होता कि किसी अपने को
कब कैसे और किस बात से तकलीफ़ होगी, यह कभी भी समझ ही न पाए
। कोई अपनी अंतहीन कोशिश से शुरुआत करके, हताशा के समुद्र तट
पर पहुँच जाए और दूसरे को उस पहली सीढ़ी का भी अहसास न हो । आत्महत्या जैसे मामलों को सुनकर दुख तो हमेशा
ही होता है लेकिन वह दुख दिमाग को दही कर देता है जब कोई बुद्धिमान और विवेकशील व्यक्ति
इसे अन्तिम विकल्प के रूप में चुनता है । ऐसे वक्त् हमेशा फि़ल्मकार गुरुदत्त
और संजीव कुमार हमेशा ज़ेहन में आते हैं । हम अपनी अकर्मण्यता से ऐसी कितनी ही
प्रतिभाओं से उनके परिजनों, शुभचिन्तकों और पूरे समाज एवं
राष्ट्र को वंचित कर देते हैं । यह इतना बड़ा गुनाह है जो किसी इनसान को माफ़
करने योग्य तो कतई नहीं ही है । लेकिन आप माफ करो या न करो,
क्या जो गया है, वापस आ जाएगा ? जाना
सबको है, दुनिया में रुकने कोई भी नहीं आया है, लेकिन जो पुनर्जन्म की विचारधारा को मानता हो, वह
समझ सकता है ठीक तरह से कि समय-पूर्व मृत्यु वह भी आत्मघाती उसके अध्यात्मिक
जीवन और संभावित आगामी जन्मों के लिए कितना विध्वंसकारी हो सकता है । सीता हमेशा
महसूस करती कि उस व्यक्ति से मुख्य रूप
से जुड़े उसके किसी ख़ास ने ज़रूर अपना दायित्व नहीं निभाया है, सही वक्त पर, सही तरीके से बल्कि शुद्ध शब्दों
में बेईमानी की है रिश्ते में उसके साथ
नहीं तो बुद्धि और विवेक इतनी कमज़ोर शै नहीं है कि किसी भी कटु सत्य को
आत्मसात करके एक आत्मा के सफर को इस जन्म में ठीक तरह से मोटी-मोटी जि़म्मेदारियॉं
संभालते हुए निभा ले जाए ।
दीपावली की
सफाई करते हुए सीता का सामना फिर उन्हीं अतीत के रद्दी पन्नों से फिर हो गया है
हालांकि सीता ने उन पन्नों को अपने स्वभाव के अनुरूप फिर कभी रद्दी में तब्दील
नहीं होने दिया है । हाथ में आते ही सीता से फिर रहा नहीं गया और उसने फिर नए सिरे
से उन पन्नों को पढ़ा । इसी क्रम में उसे उन पन्नों का कुछ हिस्सा फिर देखा -
‘’¼15-11-04½
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ईश्वर को ftlus mldk विश्वास ijekRek ls Hkh mBk
fn;k gS A’’
सीता पढ़ रही
थी लेकिन समझ नहीं आ पा रहा था कि यह किसी लेखक की दिमाग की उपज है या किसी की
मनोदशा का चित्रण । हालांकि मन और मनोदशा तो किन्हीं परिस्थितयों में कैसी भी हो
सकती है । यह सांख्यिकीय के संभाविता के नियमों के एकदम अनुरूप है,
अनुमान तो लगाया जा सकता है, लेकिन सटीक भविष्यवाणी नहीं की
जा सकती ।
वे पन्ने कम
नहीं थे । एक छोटे उपन्यास के रूप में तो
ढल ही सकते थे । पढ़ते-पढ़ते सीता तय कर
चुकी थी कि उसे क्या करना था ।
आज लगभग दस
माह बाद ग्यारह सितम्बर है, यही वह दिन था जब सीता नाम समाहित किए वे
पन्ने रद्दी में इस दूसरी सीता को मिले थे । वैसे तो आज ही के दिन विश्व
मानचित्र पर अमरीका पर आतंकी हमला भी हुआ था 2000 में और एक ऐसा विध्वंस आया था
हज़ारों लोगों के जीवन में जिसने उन जीवनों को सदा के लिए सूना कर दिया था । ये
आतंकियों की जमात भी कमाल है, सिर्फ मारना, मरना, काटना और कटना इन शब्दों के अलावा उनके लिए
ख़ुदा, इनसान, मानवीयता और धर्म के कोई
तीसरे मायने ही नहीं हैं । इतनी मार-काट के बाद क्या पा जाऍंगे ये आतंकी और ऐसी
विध्वंसात्मक सोच ? इन आतंकियों को यह बात समझ क्यों नहीं
आती कि समाज नाम के प्याज़ के पूरे छिलके जिस दिन उतर जाएँगे या क्रूरता भरी इस
आतंकी सोच से ज़बरदस्ती उतार दिए जाऍंगे, इनके खुद के लिए
भी कुछ नहीं बचेगा । जिस एकात्म धर्म की ये बात करते हैं,
जिसके लिए जेहाद करते हैं, वह भी नहीं बचेगा । स्थापित कुछ
नहीं होगा सिर्फ विस्थापित होगा और यह विस्थापन सिर्फ मानवता के अंतिम विनाश की
ओर ही ले जाएगा । ख़त्म हो जाएगा मानव सभ्यता का वजूद ।
सीता ने सोच
रखा है कि आज के महत्वपूर्ण कार्य के बाद वह इस आतंक की इस खेती पर भी अपनी कलम
चलाएगी जिसने मानव समाज को दो धड़ों में बॉट दिया एक- जो आतंक के साथ है और दूसरा-
जो आतंक के खि़लाफ़ है । लेकिन यह सब बाद में । आज तो विमोचन है उसी उपन्यास का
जो एक तरह से संकलित हैं उन्हीं अतीत के पन्नों से । सीता ने इसे अज्ञात को समर्पित
किया है शायद स्वनामधारी उसी सीता को ।
इस उपन्यास का सम्पादन भी सीता ने किया है । भूमिका भी लिखी है, सारे
घटनाक्रम का जि़क्र भी किया है और उन पन्नों के साथ एक विश्लेषणात्मक व्याख्या
भी चस्पा की है । आज उन रद्दी के पन्नों में दर्ज सीता फिर सजीव हो उठी है और इस
सीता जानती है कि कोई एक लेखक, कहानी या उपन्यास कोई
क्रान्तिकारी परिवर्तन नहीं ला सकता आज के दौर में । कबीर और तुलसी के युग बीत गए
। अब ऐसे मानव भी शायद सकुचाते हों, ऐसे युग में जन्म लेने
से । फिर भी सीता ने भरसक यह कोशिश की है
कि फिर कम से कम कुछ सीताएँ - काल्पनिक भी नहीं, कभी अपने
जीवन का एकतरफा यातायात इस तरह ढोएँ और समाज, देश तथा परिवार
वंचित न हो पाऍं किन्हीं ऐसी अनमोल प्रतिभाओं से । कोशिश सीता की यह भी है इसमें कि लड़के, पुरुष चाहे जिन आस्था के
प्रतीकों का अवलम्बन करें, नैतिकता के श्रेष्ठ मानकों
को सत्य माने या माने, व्यावहारिक भी समझें या न समझें, व्यक्तिवादी सोच
या अवधारणा को जीयें या चार्वाक की ‘’ऋणं कृत्वा, घृतं पीबेत, यावज्जीवेत् सुखं जीवेत्’’ जैसी अवधारणा को ग़लत न माने, लेकिन उन्हें यह याद अवश्य रखना चाहिए कि जिससे उनके जीवन का किचिंत भी
कार्य-व्यापार जुड़ा है, परिजन, मित्र, सेवक, या दुनिया का कोई भी मानवीयता का रिश्ता उन्हें
अपनी ही तरह जीवित हाड़-मॉंस का एक मानव मानकर कोई भी व्यवहार करें । वही कष्ट महसूस
करने का साहस करें कि किसी दूसरे के
द्वारा बलात् कुछ भी मानसिक, शारीरिक,
वाचिक व्यवहार आपके साथ करने पर, जो असहनीय कष्ट आपको भी
होगा, उस कष्ट को दूसरे को बिलकुल मत दीजिए । स्वार्थी और
आत्मकेन्द्रित बनना सबसे ज़्यादा आसान है, थोड़ा कठिन रास्ता
लीजिए, जो मानवता के विकास के रास्ते के कॉंटों को हटा सकें, ताकि उस राह से ग़ुज़रने वाली महान आत्माओं की आप किंचिंत मदद कर सकें ।
सच मानिये, जीवन के अंतिम समय में आपको आत्मसंतुष्टि से कोई
वंचित नहीं कर पाएगा । सही समय पर सही ढंग
से पर्याप्त संवेदनशीलता के साथ अगर आप क्रिया करेंगे तो सही प्रतिक्रिया की
संभावना 90 प्रतिशत रहती है, समय चूक जाने पर देश, काल, परिस्थिति भी बदल जाती है और हम ऐसी किसी घटना
के सहभागी या साक्षी न चाहते हुए बन सकते हैं जैसी इस उपन्यास की नायिका सीता के
समक्ष प्रस्तुत हो गई थी । इसमें यह विश्लेषण भी छूटा नहीं है कि कभी-कभी आपका वास्ता, बिच्छू जैसे स्वभाविक जीवों की सी मानसिकता वाले लोगों से भी पड़ जाता
है, जिनका स्वभाव ही है काटना । आप उसका जीवन भी बचाने
जाऍंगे तो भी वह काटने का स्वभाव त्यागेगा नहीं । लेकिन मानव समाज का कोई भी अंग
लड़का, लड़की, पुरुष, महिला, परिवार, समाज जो भी कम
से कम आप अपने हिस्से की मानवीयता को जि़न्दा रख सकें, मानव
का वही वर्ग सीता की उम्मीद का लक्ष्य है ।
उपन्यास ’’मन नहीं है!’’ का लोकार्पण हो
चुका है और इसी के साथ एक लेखिका सीता भी सालों बाद फिर से जीवित हो उठी है,
उपन्यास में लिखी भूमिका की इन पंक्तियों के साथ:
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reke HkkSfrd nq[kksa
ds ckotwn
izd`fr ds mieku] उपमेय
समाहित हो उस रंच-मात्र क्षण में
वह क्षण जो तत्क्षण लगे स्वयं का क्षण
चाहे फिर न रहे या छुप जाए फिर-फिर
संशय के बादलों में ।
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lq[k]
शाश्वत नहीं तो
लगे क्यों शाश्वत सा
शाश्वत तो कुछ नहीं
पर मन और आत्मा के धागे
गुंफित है शरीर में कुछ यूँ
कि परम सुख अन्तत:
परमात्मा से मिलन का]
व्याप्त है कुछ अंश में
भूत में] वर्तमान में और भविष्य में
चलायमान है] शाश्वत है
मुझमें भी
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पुष्पी
हिन्दी साहित्यिक वेब पत्रिका हिन्दी कुंज में 30 अक्तूबर
2016 को प्रकाशित. फ़ॉण्ट संबंधी तकनीीकी बाध्यता के कंकड़ों से कहानी का सम्प्रेषण सटीक
होने से वंचित न रह जाए, अत: लिंक http://http://www.hindikunj.com/2016/10/sita.html सहित पोस्ट ।