बुधवार, 26 दिसंबर 2012

दिल्‍ली का उबाल, पुलिस और समाज



कल ग्राउण्‍ड ज़ीरो से गुज़रते हुए दिल्‍ली पुलिस के जवानों के बीच की एक बात कान में पड़ी कि पहले एक घण्‍टे तो ख़ूब धुलाई-वुलाई हुई.........  माहौल फिर वैसा ही था और लोग प्रदर्शन पर आमादा थे । पुलिस अपने मद और गुरुर में चूर ही नज़र आ रही थी । और यह कमेंट करते समय ऐसा लग रहा था मानो पाकिस्‍तान या चीन के घुसपैठियों को खदेड़ा हो उन्‍होंने । अपनी वीर-गाथा बड़े  गर्व से सुना रहे थे ये पुलिस वाले ।  उनकी आवाज़  में न तो पछतावा था और न ही  हज़ारों की संख्‍या में आए लोगों की निराशा / हताशा और क्रोध के उबाल के प्रति ज़रा भी संवेदनशीलता या सम्‍मान का भाव । और उससे भी बड़ी बात कि जो मूल घटना थी, जिसके न होने देने की, या घटित होने के दौरान चौकसी बरतने की या ऐसे पैशाचिक कृत्‍य के बाद अपनी जि़म्‍मेदारी  निभाने की जो शपथ उन्‍होंने  ली थी, उसको निभा  पाने में लम्‍बे समय से विफल रहने की शर्म तो कहीं नज़र ही नहीं आ रही थी; प्रतिक्रियास्‍वरूप सामने आए इस  उबाल से निपटने के दौरान । मान लीजिए कुछ असामाजिक या तथाकथित ग़ैर-जि़म्‍मेदार राजनीतिक तत्‍व घुस भी आए थे इस विरोध  प्रदर्शन में तो क्‍या दिल्‍ली पुलिस  इतनी नकारा है या उसके जवान असामाजिक  रूप से  किसी  जंगल में  इकलौते  मानव-शिशु के रूप में पले  हैं जो मानव-व्‍यवहार के अध्‍ययन का  उन्‍हें  ज़रा भी बुनियादी  ज्ञान नहीं है  ? कोई आदिवासी भी  जो सिर्फ़ सांकेतिक  भाषा  समझता है,  दैनिक  हिन्‍दुस्‍तान  में  छपी  दो-चार  तस्‍वीरों को देखकर बता  देगा कि उन तस्‍वीरों  का  क्‍या  मतलब है जिसमें एक बुज़ुर्ग महिला जो  अपने दोनों हाथों की  हद में आए  दो-तीन लोगों को पुलिस के जवान की  लाठी से बचाने  की  कोशिश कर  रही  है, और बगल में निहत्‍थी  खड़ी लड़की अपनी तर्जनी  दिखाकर उस  पुलिस के जवान को चेतावनी दे  रही  है  कि  भइया देखो,  इनको  मारना ग़ैरक़ानूनी तो है  ही अमानवीय भी  है  । शायद तब भी उस  लड़की को  भरोसा होगा कि  ऐसा तो  हो  ही  नहीं  सकता और  वह  जवान  यह  बात समझ  भी  जाएगा । दूसरी तस्‍वीर  में  एक  20-25 साल  की  लड़की एक   बड़ा सा  बैग लिये खड़ी है,  और  एक  पुलिस का  जवान उस  पर  लाठी चला  रहा है  । कुछ जवान किसी लड़की  को  हाथ पैर  से  टांगकर ले  जा रहे  हैं । इन  लोगों से  पुलिस के  जवानों  को  कौन  सा  ख़तरा था या  हो  सकता था ? लाठी तो  पुलिस के  पास  थी,  इनमें से  किसी के  पास  नहीं !  इनके निहत्‍थेपन की सामान्‍य  सी  समझ-बूझ के  लिए  दिल्‍ली  पुलिस के  जवानों को  कोई एनकाउण्‍टर विशेषज्ञता  की  आवश्‍यकता नहीं थी, बस  अपने परिवार के किसी सदस्‍य  की छवि  को  याद  रख  लेना काफ़ी होता । आप  अंग्रेज़ों के  जमाने के  जेलर या  सिपाही नहीं हैं, जिनकी नियुक्ति सिर्फ़ और  सिर्फ़ दमन करने के  लिए  ही  की  जाती  थी, वह भी  देशभक्‍तों  या  सामान्‍य भारतीयों का । आप  उपद्रवी  तत्‍वों  से  निपटना  क्‍यों  चाहते हैं ? आम-जनों  की  भीड़  में  शामिल मासूमों या  बेगुनाहों  को  बचाने के  लिए  या  सिर्फ़ ख़ुद को बचाने के लिए ? आपकी नियुक्ति आन्‍तरिक क़ानून और  व्‍यवस्‍था की  स्थिति  बनाये रखने के  लिए  की  गई  है  और भीड़ में भी  उपद्रवी तत्‍वों  से  निपटने के दौरान  आपको  अपनी  रक्षा  से  पहले  आम  बेग़ुनाह नागरिक, और  उससे  भी  पहले बच्चों, बुज़र्गों और  महिलाओं  की  रक्षा / सुरक्षा  को  सर सर्वप्रथम सुनिश्चित  करना  होता है । आप  अपनी  मूल  शपथ  को ही  भूल  चुके  हैं ? आप बच्चियों और बुज़ुगों  की ही  पिटाई  करते  हैं और इस  कृत्‍य को  भी  किसी दृष्टि  से  न्‍यायोचित  ठहराने की  कोशिश  भी  कर  रहे  हैं  ? और  तो और आप  अपने  इस  कायराना  कृत्‍य  के लिए  ख़ुद  की  पीठ भी  थपथपा  रहे  हैं ? इतनी  ही  गर्मी है अपने  शौर्य  की,  तो  एक  भी  अपराधी  को  मत छोड़ो ।  अपनी घ्राण-शक्ति का  उपयोग करके  उसे  अपराध  करने से  पहले  ही  रोक  दो  और  अपराध कर  रहा  हो तभी  उसकी अपने इसी  डण्‍डे  से  धुनाई  कर  दो  ( जिससे  निहत्‍थे  मासूमों  की पिटाई कर  रहे  हो ) ? कम  से  कम  समाज  ऋणी तो हो  जाएगा, अपना  कर्तव्‍य  भी  निभा  दोगे और नमकहराम भी  नहीं  कहाओगे । शायद जिन-जिन  जवानों  ने  एक  भी  लाठी  निहत्‍थे मासूम पर चलाई है,  वे अपने घर  में  भी  ऐसा  ही  करते  होंगे  । अगर उसका अपना  बच्‍चा  भी  रोते  हुए  उससे आकर  बाहर  के  किसी  अपराधी  की  शिकायत  करेगा  कि  पापा  देखो  उसने मेरा  हाथ  तोड़  दिया  है  तो वह  अपने बच्‍चे  का  एक हाथ और तोड़  देगा  और थप्‍पड़  मारकर  उसे सीख देगा  कि  घर  से  बाहर  निकला  क्‍यों ? अब  बैठ  और  रो । क्‍या  फ़र्क़ है  तुम में  और  उस  अपराधी में ? उसने भी  हाथ तोड़ा  और  तुमने भी ।  घर  की  चार-दीवारी  में  किसी का  सर्वांगीण विकास  हो  सकता  है ? घर  के  बाहर  का  माहौल भी  उसके लिए सुरक्षित  बनाने की जि़म्‍मेदारी किसके ऊपर  छोड़  देना चाहते हो  ?  
मैंने योगेन्‍द्र यादव जी  की टिप्‍पणी पढ़ी । उन्‍होंने  बताया  कि  पुलिस  वाले लड़कियों  को  लाठी  से  मार रहे  थे  और  जब  वे  बचाने  गये  तो  उन्‍होंने  उनकी  भी  पिटाई  कर  दी  । एक  तो  वर्षों  से,  उनकी  विद्वता, ज्ञान  की  गुरुता, गहनता और इसके साथ  ही ज़हीनीपन के  लिए  उनके प्रति जो  सम्‍मान की भावना  है,  वह  बेहद  आहत  हुई,  जिस  भयावह घटना के लिए  यह  विरोध  था, उस घटना  के  प्रति इंद्रियाँ तो अभी  भी  सन्‍न  ही हैं ।  पुलिस  का डण्‍डा मानो  प्राकृतिक आपदा  हो, जो बच्‍चे की  मासूमियत और अपराधी की  क्रूरता  में  कोई  भेद नहीं  करती । जिन  योगेन्‍द्र  यादव  जी  के ज्ञानशील और गहन  व्‍यक्तित्‍व से  एक  अच्‍छे  समाज के निर्माण  में महत्‍वपूर्ण योगदान  लिया जा सकता  है,  उनकी  नियति  क्‍या  दो  टके  के  पुलिस  की  लाठी है ? ( माफ़ कीजिये, ऐसे  शब्‍दों  का  इस्‍तेमाल  कर  रही  हूँ लेकिन और  कोई  शब्‍द नहीं  है मेरे  पास  इसके  लिए  ।  ऐसे  नक्‍कारा  पुलिस के  जवान  की क्‍या  उपयोगिता  है  स्‍वस्‍थ  समाज के  निर्माण  के  लिए  जो  लाठी का उपयोग  करते  समय  एक  अपराधी  और  योगेन्‍द्र यादव  में  फ़र्क़  नहीं कर  सकता  ?  जिस जवान  को  करबद्ध  होकर  सामाजिक दायित्‍व  के  गुण  योगेन्‍द्र  जी  से  सीखने  चाहिये, उसकी लोकतंत्र में इतनी  औकात  ( फिर माफ़ कीजिये ) हो गयी  कि  उन  पर या  उन  जैसों पर लाठी चलाए  ? कैसा लोकतंत्र है  हमारा और  कैसी  सरकार है,  जो  इन  सूक्ष्‍म  लेकिन दीर्घकालिक असर  रखने वाली घटनाओं  को  अनदेखा कर  देने का  साहस रख सकती है   ? यही  अनदेखी हमें यहॉं तक  ले  आयी  है  ।
आपराधिक प्रवृत्तियॉं या कुण्‍ठाऍं प्रारम्‍भ  में  बेहद  सूक्ष्‍म  ही  होती हैं और काफ़ी लम्‍बी  यात्रा  तय  करने के बाद  ही  इस  हद तक पहुँचती हैं । हालांकि सदियों से  नारी जाति को  क्रूरतम रूप  से अपमानित किया जाता रहा  है  लेकिन आज़ादी के  बाद  दिल्‍ली  जैसे महानगर में, इतने चाक-चौबन्‍द  सुरक्षा के  माहौल में, जहॉं आये दिन  हाई अलर्ट रहना आम बात  है, जहॉं देश की  सबसे ताक़तवर राजनीतिक हस्तियॉं, जिनमें भी महिलाओं (सोनिया  गॉंधी, मीरा कुमार,  सुषमा स्‍वराज आदि ) की  संख्‍या ख़ासी अच्‍छी  है, महिलाओं के  प्रति इस भीषणतम तरीके़ से  अपराध  होना  इतना आसान  भी  नहीं हो  सकता था । जब लगभग पॉंच वर्ष  पहले महिलाओं के  लिए  काफ़ी सुरक्षित समझे जाने वाले मुम्‍बई शहर  में  गेट वे  ऑफ़  इंडिया पर इसी  दिसम्‍बर  महीने के  अंतिम दिन  में एक लड़की के  साथ  सामूहिक  छेड़छाड़ की  घटना हुई  थी, वह  एक अलार्मिंग  ट्रेलर था,  ऐसी  घटनाओं  का और  य‍ह संकेत भी, कि  अब सुरक्षा की दृष्टि से  अच्‍छे  कहे जा  सकने वाले  शहरों में भी हम  ऐसी  घटनाओं की  पुनरावृत्तियॉं देखने के  लिए  तैयार  रहें ।
हमारे समाज में लड़कियों और  महिलाओं  से छेड़छाड़  और  बदतमीज़ी की घटनाओं को बेहद मामूली समझकर अनदेखा किया जाता  रहा  है  दशकों से भी  और  सदियों से  भी, कारण अनगिनत हो  सकते  हैं  । जो  जितनी बड़ी बदतमीज़ी महिलाओं के  प्रति कर  सकता  है, वह  उतना ही बड़ा पुरुष है  और  जो  जितना  सम्‍मानशील या  सहयोगी होगा महिलाओं के  प्रति वह  उतना ही बड़ा  कापुरुष और  पारिवारिक भाषा  में  कहें  तो  जोरु का  गु़लाम कि़स्‍म का पुरुष  कहा  जाता रहा  है  । हमारे आपके परिवार से  यही संस्‍कार  लेकर तो  एक लड़का जब  आदमी बनकर  घर  से  बाहर क़दम रखता है  तो  उसे  विरासत में  मिली होती है  लड़कियों और  उनकी भावनाओं को  दबा देने कुचल  देने की पौरुषिक और  पाशविक वृत्ति से भरी  कुण्‍ठा ।  आग़  में  घी  का  काम  किया है  लड़कियों की बाहर निकल कर  ख़ुद को  लड़कों  से  बीस  साबित  कर  देने वाली  सफलताओं की कहानियों ने  । पचा  नहीं  पाया  है  हमारे  समाज  का  औसत  पुरुष  वर्ग,  महिलाओं की  इस  सफलता  को । उन्‍हें  लगता  है  इन  लड़कियों की  यह  औकात कि  हमसे  आगे  निकलें  ? आओ  इन्‍हें  सबक  सिखाते हैं  ।  अब  यही  आदम-कुण्‍ठा  बलवती  होकर  अधिकतम  किसी  लड़की  को  क्‍या  सबक सिखा  सकती  है ! यह  मानक  भी  तो  समाज  ने  ही  दिया  है  न !
ऐसी  भी     नफ़रत  की  इन्‍तेहां  किसलिए नारी  जाति के  प्रति  न सिर्फ़ सारे पुरुष बल्कि सारी माताऍं,  ज़रा  विचार  करें, समझें भी  और सम्‍झाऍं भी   ।  इतनी  भीषण  नफ़रत तो ये बलात्‍कारी  पुरुष, लाखों  लोगों  का  नरसंहार  कर  देने  वाले आतंकवादियों  के  प्रति भी  नहीं रखते  होंगे  ! और  यह दुष्‍कृत्‍य  नारी जाति को  सम्‍पूर्ण  रूप  से  नेस्‍तानाबूद  कर  देने  की  भीषणतम  बलवती नफ़रत  के  सिवा और  क्‍या  हो  सकता  है  !  मानसिक  बीमारी  तो  है  ही । ज़रा  पूछिये   अपने  आप  से  कि आप  अगर  इतनी  ही  क्रूरतम  पैशाचिक  नफ़रत  लिये  हैं  नारी जाति  के  प्रति तो  उनकी  तरफ़  देखिये भी  मत । जहॉं नारी  जाति का किचिंत  भी अस्तित्‍व  है,  उस  जगह  को  त्‍याग  दीजिये ।  ठीक  है  आपकी  माता  नारी  है,  और  आपके जन्‍म  पर  आपका  बस  नहीं  था वरना  शायद  आप  एक  पुरुष की कोख  से ही  जन्‍म  लेना चाहते । आपके पास  विकल्‍प  है,  नारीमुक्‍त  जीवन  जीने का,  चुन  लीजिये; कहीं  न कहीं  ज़रूर  पहुँचेंगे  और  विश्‍वास  रखिये  जहॉं भी  पहुँचेंगे, आज  की  जगह  से  बेहतर  जगह  होगी,  आपके लिए  भी     ( जेल  में  कैदी  या  लोगों के दिलों  में नफ़रत बनकर नहीं ),  आपके, हमारे सबके परिवार  की  लड़कियों के  लिए  भी  और  समाज  के  लिए  भी ।
एक बात  और  भी  है  ।  इन  लोगों  की  गिनती करते समय  हम  ऐसे  छुपे  ग़ुनहगारों को  छोड़ देते हैं जो  भावनात्‍मक रूप से  नारी-जाति का अपमान, शोषण करके  बड़ी होशियारी से भावनात्‍मक  रिश्‍तों  या  सामाजिक  रिश्‍तों से  बाहर  निकल आते  हैं  और  समाज की नज़रों में  गिरने से  ख़ुद को  बचा  भी लेते हैं  । शायद  ख़ुद की नज़रों में  गु़नहगार स्‍वयं को मानते भी  हों  तो  क्‍या  । सज़ा तो  अन्‍तत: नारी ही  भुगतती है  । ऐसे  सामाजिक अपराधी भी नारी जाति के कम गु़नहगार नहीं,  हॉं डिग्री का अन्‍तर ज़रूर हो  सकता है  । और  ऐसे  गु़नहगार हमारे आपके बीच  से  ही  हैं  और करीब भी  होते हैं  । नारी जाति को ऐसे गु़नहगारों  को  भी  पहचान कर इनसे भी दूरी बनाये रखने की  आवश्‍यकता है  क्‍योंकि  इनका गुनाह न  ही  आप  साबित कर  सकते हैं,  न ही इन्‍हें  सज़ा  दे सकते हैं  और  न ही  ऐसे शातिर आस्‍तीन  के  सॉंपों से  मिले ज़हर के  दुष्‍प्रभाव  से  ख़ुद को,  परिवार या  समाज को बचा  सकते हैं  ।

शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

उभरना-उबरना

उभरना और उबरना- सुनने में बहुत अखरता है जब कोई सदमे से उभरता

है और किसी को मूर्ति के उभार में उबार दिखाई देता है । अच्‍छा  हो  कि 

भाषा के  अनुरूप हम उभरना और उबरना का उचित प्रयोग करें ।  


उभरना-  (1) अरविन्‍द केजरीवाल एक सशक्‍त नेता के रूप में बड़े तेज़ी से

                     उभरे हैं  ।
  
               (2) चित्रकारी में मैटलिक प्रिंट का उभार है ।



उबरना-     (1)  अपने समस्‍त परिजनों की मौत के सद् मे  से वह मुश्किल 

                       से उबर पाया है ।

                 (2)  विपन्‍न आर्थिक  परिस्थिति से  उबरना आज के हालात में

                        बेहद कठिन है ।

                                                    ...........

शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2012

व्‍यक्‍त-अव्‍यक्‍त



यदि भौतिक शरीर किसी जीव, मन और आत्‍मा की संयुक्‍त अभिव्‍यक्ति है तो भौतिक शरीर का न रहना  किसी  जीव, मन और आत्‍मा की अन-अभिव्‍यक्‍त अवस्‍था है ! यह अध्‍यात्मिक सोपानों की सीढि़यॉं  हैं । यह अन-अभिव्‍यक्‍त अवस्‍था ( प्रेत यानी जो जान पड़ता है लेकिन उसके होने या न होने में संशय की अवस्‍था है ! ), अतृप्‍त, संतृप्‍त या तृप्ति/अतृप्ति की सीमा से परे या इससे भी कुछ अलग हो सकती है । शायद हिन्‍दुओं में श्राद्ध-कर्मों का यह पक्ष भी होगा । अशरीरी आत्‍मा के अस्तित्‍व से इनकार नहीं किया जा सकता ( निश्चित ही यहॉं भूत आदि भयों की बात नहीं हो रही है ) जैसे कि कपूर, धूप बत्‍ती पर रखने पर या हवा या ताप आदि के प्रभाव से उड़ जाए तो उसके विलुप्‍त होते हुए भी आप यह नहीं कह सकते कि कपूर का अस्तित्‍व कुछ देर पहले था ही नहीं । निश्‍चय ही कपूर जिस तरह पहले सीमित क्षेत्र में ( त‍ब तक जब तक कि आप उसकी खुशबू से उसकी उपस्थिति का अंदाज़ा लगा सकें कि शायद अभी-अभी यहॉं कपूर प्रज्‍ज्‍वलित था )  और फिर असीमित क्षेत्र में ( आकाश, वायु, पृथ्‍वी आदि में जब आप सूक्ष्‍मतम रूप में उसका प्रत्‍यक्ष आभास भी न कर पाऍं );  व्‍याप्‍त हो जाता है उसी तरह शरीर के पंचतत्‍वों में विलीन हो जाने के बाद भी आत्‍मा सूक्ष्‍मतम रूप में विद्यमान रहती है ।
लेकिन क्‍या  मानसिक रूप में भौतिक शरीर यानी  जीव से जुड़ी अनुभूतियों को आत्‍मा की संलग्‍नता से पृथक कर लेना या उसे  सर्वथा के  लिए त्‍याग देना, आत्‍मा की सार्थक अन-अभिव्यिक्ति हो सकता है  ! 

बुधवार, 19 सितंबर 2012

सूक्ष्‍म्‍ाता



भावाभिव्‍यक्ति  में  भाव  बेहद  सूक्ष्‍म  जबकि  शब्‍द  बेहद  स्‍थूल  साबित 

होते  हैं   और इसीलिए  गहन भावों की  अभिव्‍यक्ति शब्‍दों के माध्‍यम  से 

सम्‍पूर्ण कभी नहीं हो  सकती । कुछ अनकहा शेष रह ही जाता है  और कुछ                   

अकथ्‍य, शब्‍दों में व्‍यक्‍त हो ही जाता है । 

शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

हिन्‍दी डे सेलेब्रेशन (व्‍यंग्‍य कविता)




आज हमने फिर मनाया
हिन्‍दी डे सेलेब्रेशन
दृश्‍य पटल पर ख़ूब दिखाया
हिन्‍दी का प्रेज़ेण्‍टेशन
देखो ! हिन्‍दी का तो हो रहा
सभी जगह इम्‍प्‍लीमेण्‍टेशन
हिन्‍दी-प्रेमी अब तो कर लो
तुम भी इस पर सैटिस्‍फैक्‍शन ।

हिन्‍दी-भाषी प्रान्‍त तुम भी
पालो न कोई फ़्रस्‍ट्रेशन
फिर भी भारी अंग्रेज़ी हिन्‍दी पर
कुछ तो समझो सिचुएशन ।

गँवारीपन की तुम जि़द छोड़ो
सभ्‍य नहीं कहाओगे
बिन सीखे अंग्रेज़ी लेसन
बात नहीं  सुनेगा बाबू
जब तक न हो अंग्रेज़ी सेशन ।
अंग्रेज़ी सभ्‍यता की  जय बोलो
सिखाया जिसने सिविलाइज़ेशन
यह तो पवित्र पाश्‍चात्‍य भाषा है
इससे तनिक लो इन्‍स्‍पीरेशन ।

अन्‍तर्राष्‍ट्रीय भाषा है यह तो
क्‍यों करते हो तुम ऑब्‍जेक्‍शन
पन्‍द्रह साल से सालों साल का
किया है हमने प्रोविज़न
अब तो सदियों यही चलेगा
हमारा मानो  ऑब्लिगेशन ।

हिन्‍दी प्रेमी सकुचाकर
कुछ रुककर बोला-
धन्‍य अंग्रेज़ी सौतेली जननी हो
कराया जिसने
लैंगवेज सेपरेशन
भाषा-आधार पर नेता प्रान्‍तों का
कर बैठा देखो
रि-कॉन्‍स्‍ट्रक्‍शन
आती जिससे बू अलगाव की
जिससे होता डिस्‍ट्रक्‍शन
हिन्‍द-प्रदेश का वासी जिसका
भुगत रहा रिट्रिब्‍यूशन ।

अब हम तुमसे साफ़ कहेंगे
नहीं करेंगे हेज़ीटेशन
मत लाओ नौबत तुम ऐसी कि
पुस्‍तक-घर हो हिन्‍दी का क्रेमेशन
नग्‍न सत्‍य यह हो सकता है
नहीं है इसमें एक्‍ज़ेज़रेशन
जैसे संस्‍कृत जा दफ़नी है
और हुई है
आउट ऑफ़ फ़ैशन ।

हिन्‍दी को सच में लागू करने में
बोलो, लोगे कितना डयूरेशन ?
अंधेरे को अब न और बढ़ाओ
न फैलाओ कोई इल्‍ल्‍यूज़न
न ही काग़ज़ पर घोड़े दौड़ाओ
न दो तुम जस्‍टीफि़केशन ।

सर्वत्र विकास तो तब ही होगा,
एक ही भाषा में
जब हो, एजूकेशन
तभी एकात्‍मता आ पाएगी
यही हमारा कन्‍क्‍लूज़न
मोती अनेक धागा पर एक ही
होगा तभी
नेशनल एंटीग्रेशन ।
*******
                                                ( ‘’180 डिग्री  का मोड़’’ काव्‍य-कृति से )-
                                          हिन्‍दी दिवस पर विशेष  

















मंगलवार, 31 जुलाई 2012

हिंसा के विरुद्ध साहित्‍य



हिंसा के  विरुद्ध साहित्‍य ( Literature against Violence ) : साहित्‍य का यह रूप समझने के लिए हमें पहले दोनों को अलग-अलग करके देखना होगा । हिंसा क्‍या है  ?  और साहित्‍य क्‍या है ? साहित्‍य हम सभी जानते हैं, यहॉं बैठा हर व्‍यक्ति लेखनी से साहित्‍यकार है और दिल से भी । फिर बारी आती है हिंसा की । हिंसा क्‍या है ? इस शब्‍द के प्रति विभिन्‍न नज़रिये और हिंसा की परिभाषाऍं इतने विविध हैं जितनी उत्‍तर-दक्षिण और पूरब-पश्चिम दिशाऍं । हिंसा की अतिरेकी अवधारणा से लेकर सत्‍य की रक्षा के लिए हिंसा को धर्म एवं नीतिसम्‍मत मानना इसका एक व्‍यापक फलक है और चूँकि साहित्‍य तो मानव-सभ्‍यता के विकास के साथ ही मौखिक, चैत्रिक, अलिखित, लिखित आदि सोपानों में जीता रहा है ।  इसमें सारे प्राचीन, प्राग्‍-ऐतिहासिक, एवं आधुनिक साहित्‍य को सम्मिलित किया जा सकता है ।  चूँकि भारत-वर्ष की मूलभूत विशिष्‍टता, गुणधर्म या जीन; धर्म एवं अध्‍यात्‍म रहा है और  अध्‍यात्‍म से संबंधित विश्‍व का उत्‍कृष्‍ट  साहित्‍य हिंसा के परिणामस्‍वरूप ही नष्‍टीकरण की भेंट चढ़ जाने के बावजूद आज तक प्रचुर मात्रा में उपलब्‍ध है और इससे भी आगे बढ़कर उत्‍तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक,  और  आगे भौगोलिक सीमाओं को पार कर थाईलैण्‍ड, कम्‍बोडिया, चीन, जापान, श्रीलंका, नेपाल, सुदूर ईरान आदि तक में जनमानस एवं रीति-रिवाजों में भी व्‍याप्‍त है ।
जैन साहित्‍य में हिंसा की सूक्ष्‍मतम परिभाषा मिलती है जो कहती है मन, वचन कर्म से किसी को दु:ख पहुँचाना हिंसा है । ईसा के अनुसार मन में हिंसा का विचार हिंसा ही है । इससे आगे बढ़कर हम जब धर्म एवं अध्‍यात्‍म के अनूठे और इकलौते उत्‍कृष्‍ट ग्रंथ यानी गीता की बात करते हैं तो हिंसा की बड़ी तर्कसंगत, न्‍यायसंगत, और व्‍यापक व्‍याख्‍या  मिलती है जो एक ओर चींटी की हत्‍या को भी हिंसा मानती है, कर्मों के सिद्धान्‍त से जोड़ती है, दूसरी ओर कहती है कि अन्‍याय के विरुद्ध शस्‍त्र उठाना और धर्म की रक्षा करना हर मानव का धर्म है ( यहॉं धर्म शब्‍द व्‍यापक अर्थ रखता है, संकीर्ण नहीं ); और इस तरह निष्‍काम कर्म के लिए प्रेरित करती है । कब हिंसा हिंसा नहीं और कब अहिंसा भी हिंसा है, इसकी समग्रतम व्‍याख्‍या गीता नाम का हमारा पवित्र साहित्‍य बता चुका है हज़ारों वर्ष पहले ही ।
भारत की आज़ादी की दिशा में हिंसा के इन्‍हीं विपरीत नज़रियों ने महति भूमिका निभायी है ।  जहॉं गॉंधी जी ने अहिंसा परमोधर्म: पर ज़ोर दिया तो इसके साथ ही एक परन्‍तुक भी जोड़ दिया कि अन्‍याय के खि़लाफ़ आवाज़ उठाना हिंसा नहीं है । अन्‍याय सहकर चुप रहना कायरता है । हिंसा अहिंसा का यह अर्थ ! कायरता बुरी है इसलिए वीर बनिये । कैसे वीर ? ऐसे वीर जो अन्‍याय के विरुद्ध आवाज़ तो उठाऍं और हँसते हुए एक गाल पर मार खाकर दूसरा गाल भी आगे कर दें- लेकिन अपने सिद्धान्‍त और उद्देश्‍य पर अडिग रहते हुए सीने पर सामने से गोली खाने को तैयार रहें । लोकमान्‍य तिलक, सुभाष चन्‍द्र बोस, सावरकर, भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु, आज़ाद आदि हिंसा की गीता वाली समग्र परिभाषा को जीते रहे । और इस हिंसा के जवाब की हिंसा में भी हम यह सुनते रहे कि-
सर फ़रोशी की तमन्‍ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है ।

हिंसा अहिंसा का विचार साहित्‍य में आज़ादी तक प्रत्‍यक्ष तौर पर बड़े मायने रख रहा था क्‍योंकि आज़ादी के लिए क्रान्ति एक सम्‍पूरक और अति आवश्‍यक घटक है फिर चाहे वह वैचारिक क्रान्ति हो, सैद्धान्तिक क्रान्ति हो या फिर थोपी गई ख़ूनी क्रान्ति जिसके साक्षी रूस, चीन और हाल में अफ़गानिस्‍तान एवं ईराक आदि देश बने हैं । यूरोपीय देशों में सत्‍ता-परिवर्तन वैचारिक क्रान्ति का बिन्‍दु रहा है मुख्‍यत: वर्तमान में ।
साहित्‍य को शुरुआत से ही विभिन्‍न खांचों में बॉंटने की  स्‍वाभाविक सामाजिक परम्‍परा रही  है । विचारों के वैभिन्‍नय से ही जैन-साहित्‍य, बौद्ध-साहित्‍य आदि, फिर वर्तमान दौर में दलित साहित्‍य, स्‍त्री-विमर्श; और अब नक्‍सली साहित्‍य,  वाम-साहित्‍य जैसे साहित्‍यिक खांचों का जन्‍म हुआ है । अब तो साहित्‍य भी हिंसक होने  लगा है । कई स्‍थानों पर हिंसक-साहित्‍य बरामद होता है । समझने की बात है कि साहित्‍य अपने आप में हिंसक हो सकता है या साहित्‍य जिस विचार का वाहक है वह हिंसक या अहिंसक या उदासीन (न्‍यूट्रल) होता है !    
हॉं, इस विषय में एक स्‍पष्‍ट प्रतीति अवश्‍य है । हिंसा की सराहना या समर्थन सामान्‍य जन या हम नहीं करते । मेरे विचार में साहित्‍य का उद्देश्‍य हिंसा को प्रोत्‍साहन देना नहीं होना चाहिए । हॉं, वैचारिक क्रान्ति का सूत्रपात तो साहित्‍य करता ही रहा है सदियों से । साहित्‍य समाज का आईना भी है और मार्गदर्शक भी; तो साहित्‍य को, मार्गदर्शन का काम समाज का प्रतिबिम्‍ब दिखाते हुए करना होगा । साहित्‍य नकारात्‍मक हिंसा का समर्थक नहीं हो सकता । हॉं, साहित्‍य का धर्म है अन्‍याय के विरुद्ध सामाजिक क्रा‍न्ति के पक्ष में वह सकारात्‍मक हिंसा का पक्ष ले सकता है । यह पूर्णत: निर्भर करता है लेखक या रचनाकार की स्‍वयं की विचारधारा, देशकाल एवं परिस्थिति पर । उग्रता या सौम्‍यता व्‍यक्ति-विशेष का गुण है जो भाषा का आधार लेकर साहित्‍य में परिणत होता है और फिर वह साहित्‍य उग्र या सौम्‍य, हिंसक या अहिंसक कहा जाने लगता है ।
लेकिन जब हम बात करते हैं जि़म्‍मेदार लेखक या साहित्‍य की तो  एक जि़म्‍मेदार लेखक या साहित्‍यकार का धर्म है कि वह अपने साहित्‍य से हिंसा को बढ़ावा न दे बल्कि उसे ख़त्‍म करने के वास्‍ते सौहार्दपूर्ण साहित्‍य की रचना करे जो आहत तन,  मन और मस्तिष्‍क पर मलहम का काम कर सके यही सच्‍चा लेखक-धर्म है । ऐसा नहीं कि ऐसा साहित्‍य अब लिखा नहीं जा रहा । ख़ूब लिखा जा रहा है जो गूंगों की आवाज़ भी बना है । आज हम सेमिनार इसी विषय पर कर रहे हैं और हमारी लेखक बिरादरी यहॉं उपस्थित है तो आज हम आहवान करें एक-दूसरे को; और सेमिनार के माध्‍यम से बाहर भी यह संदेश दे सकते हैं कि कम से कम हमारा साहित्‍य सैद्धान्तिक रूप से हिंसा को बढ़ाने वाला नहीं बल्कि हिंसा को कम करने वाला होगा । यहॉं हिंसा से तात्‍पर्य शारीरिक हिंसा के साथ ही शाब्दिक और मानसिक हिंसा  से भी है ।
हॉं, गीता के संदेश की तरह हर मानव का धर्म है कर्म के सिद्धान्‍त का पालन करना । और अगर सत्‍य की स्‍थापना के लिए आवश्‍यक हो तो लेखनी रूपी शस्‍त्र को हिंसा का भार उठाने के लिए भी तैयार रहना चाहिए । जब सत्‍य की स्‍थापना के लिए ईश्‍वर अवतार ले सकता है तो हम जीवितों का भी तो कुछ कर्म का  धर्म बनता ही है । कृष्‍ण ने यही संदेश दिया है गीता में, जो मेरी  दृष्टि में समग्रतम है-  
  ‘’यदा-यदा हि धर्मस्‍य ग्‍लार्निभवति भारत
अभ्‍युत्‍थांधर्मस्‍य तदात्‍मानं सृजाम्‍यहम 
 परित्राणाय साधूना विनाशाय च दुष्‍कृतां
 धर्म संस्‍थापनार्थाय सम्‍भवामि युगे-युगे’’
                             



‘’उपरोक्‍त पर्चा इंडियन सोसायटी ऑफ़ ऑथर्स (InSA) द्वारा  हिंसा के विरुद्ध साहित्‍य विषय पर 28  जुलाई, 2012 को गॉंधी शान्ति प्रतिष्‍ठान में आयोजित   सेमिनार में लेखिका द्वारा पढ़ा गया ।‘’