मूल रूप से हर बच्चा एक इनसानी स्वभाव के अनुरूप स्वभावत: एक कोरी स्लेट होता है । अगर बाह्य रूप से आरोपित विचार उसे वैसा कुछ और बनने के लिए प्रेरित न करे तो हर बालक सहज, शान्तिप्रिय और सरल ही होता है । जैसे-जैसे शिशु बड़ा होता है समाज, देश-काल और लोगों की सकारात्मक या नकारात्मक क्रिया अथवा सोच से उसमें एक व्यक्ति के रूप में परिवर्तन होता है ।
कभी-कभी यह बाह्य आरोपित दबाव इतने नकारात्मक होते हैं कि उस सरल, सहज शिशु को बदल कर रख देते हैं । यदि इन दबावों की प्रतिक्रिया वह करे तो परिस्थितियों को बदल कर अनुकूल भी कर सकता है । अगर दबाव हावी रहें तो क्रोध और अन्य हीन भावनाऍं पनपती हैं जो अगर अनियंत्रित हो जाऍं और बाहर निकल पड़ें तो व्यक्ति समाज और व्यवस्था का अपराधी (सूक्ष्मत: चाहे परिवार का, समाज का, देश का या मानवता का) बन जाता है; अन्दर ही रह जाए तो उसकी स्वयं की हीन भावनाऍं उसे भस्मासुर बना देती हैं और अगर वह इन तीनों स्थितियों पर नियंत्रण कर ले तो सन्त बन जाता है ।
महत्वपूर्ण और सब कुछ बदल कर रख देने वाला तथ्य यह है कि कोई भी वैयक्तिक इकाई- कब, कितना, किससे, क्या और कैसे लेगी और उसे अन्तर-संश्लेषण के बाद किसे, कब, कैसे, कितना और क्या लौटाएगी ।
हमारे समाज की मौजूदा दशा को इस विश्लेषण से समझा जा सकता है।
जवाब देंहटाएंजी, सच कहा आपने । दु:ख की बात यह है कि एक शिशु जो समाज, राष्ट्र या मानवता का उपयोगी घटक बन सकता है, वह दिग्भ्रमित होकर क्या से क्या बन जाता है और जिनकी (यानी परिवार, समाज और सरकार) जि़म्मेदारी है इस शिशु रूपी बीज को व्यक्ति रूपी फलदायी वृक्ष में परिणत करने की, वे गुनहगार और देनदार हैं इस दिग्भ्रमित बच्चों/युवाओं/व्यक्तियों के विशिष्ट वर्ग के । विचार की बात है कि आखि़र कब हम सभ्यता के इस सोपान को हासिल कर पाऍंगे ? क्या विकास का यह पहलू अधोगामी ही रहेगा ?
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