यदि भौतिक शरीर किसी जीव, मन और आत्मा की संयुक्त अभिव्यक्ति है तो भौतिक शरीर का न रहना किसी जीव, मन और आत्मा की अन-अभिव्यक्त
अवस्था है ! यह अध्यात्मिक सोपानों की सीढि़यॉं हैं । यह अन-अभिव्यक्त अवस्था ( ‘प्रेत’ यानी जो जान पड़ता है लेकिन उसके होने या न होने में संशय की अवस्था है ! ), अतृप्त,
संतृप्त या तृप्ति/अतृप्ति
की सीमा से परे या इससे भी कुछ अलग हो सकती है । शायद हिन्दुओं में श्राद्ध-कर्मों
का यह पक्ष भी होगा । अशरीरी आत्मा के अस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता ( निश्चित
ही यहॉं भूत आदि भयों की बात नहीं हो रही है ); जैसे कि कपूर,
धूप बत्ती पर
रखने पर या हवा या ताप आदि के प्रभाव से उड़ जाए तो उसके विलुप्त होते हुए भी आप
यह नहीं कह सकते कि कपूर का अस्तित्व कुछ देर पहले था ही नहीं । निश्चय ही कपूर जिस
तरह पहले सीमित क्षेत्र में ( तब तक जब तक कि आप उसकी खुशबू से उसकी उपस्थिति का अंदाज़ा
लगा सकें कि शायद अभी-अभी यहॉं कपूर प्रज्ज्वलित था ) और फिर असीमित क्षेत्र में ( आकाश, वायु, पृथ्वी आदि में जब आप सूक्ष्मतम रूप में उसका प्रत्यक्ष
आभास भी न कर पाऍं ); व्याप्त हो जाता है उसी तरह शरीर के पंचतत्वों में
विलीन हो जाने के बाद भी आत्मा सूक्ष्मतम रूप में विद्यमान रहती है ।
लेकिन क्या
मानसिक रूप में भौतिक शरीर यानी जीव
से जुड़ी अनुभूतियों को आत्मा की संलग्नता से पृथक कर लेना या उसे सर्वथा के
लिए त्याग देना,
आत्मा की सार्थक
अन-अभिव्यिक्ति हो सकता है !