मंगलवार, 1 नवंबर 2016

तीन लघु कविताऍं: सिसकते घाव, नदी और बहस की सार्थकता



सिसकते घाव


खुले घावों में
लहूरंजित छींटें,
जि़न्‍दगी की  चादर पर
मलहम की उम्‍मीद में,
सिसकते – सिसकते
आखि़र सो गए ।।

                                        ( उन निर्भयाओं को समर्पित, जिन्‍हें न्‍याय नहीं मिला- न सामाजिक और न विधिक )  


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नदी 


ग़म ये नहीं कि नदी
सागर से मिलती है,
ग़म ये है कि नदी
सागर  में गिरती है,
कैसा  छलावा दिया,
भोली नदिया को,
ऐ सागर तूने,
मिलन की आस
दोनों में है,
पर
पतन
नदी ही सहती है ।।
( 1992 में रचित )
                                                ...........



बहस की सार्थकता

बहस की सार्थकता
तभी है
जब हम,
चिपके न रहें
अपनी  असहमतियों पर
और संशय न करें
अपनी  सहमतियों पर ।।
(अंतिम दो लघु कविताएं ‘’180 डिग्री का मोड़’’ काव्‍य-संग्रह से)
                                                        ...........
















        हिन्‍दी साहित्यिक वेब पत्रिका हिन्‍दी कुंज में 31 अक्‍तूबर 2016 को प्रकाशित. लिंक तीन लघु कविताऍं- सिसकते घाव नदी और बहस की सार्थकता सहित पोस्‍ट ।    

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