सिसकते घाव
खुले घावों में
लहूरंजित छींटें,
जि़न्दगी की
चादर पर
मलहम की उम्मीद में,
सिसकते – सिसकते
आखि़र सो गए ।।
(
उन ‘निर्भयाओं’ को समर्पित, जिन्हें न्याय
नहीं मिला- न सामाजिक और न विधिक )
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नदी
ग़म ये नहीं कि नदी
सागर से मिलती है,
ग़म ये है कि नदी
सागर में गिरती है,
कैसा छलावा दिया,
भोली नदिया को,
ऐ सागर तूने,
मिलन की आस
दोनों में है,
पर
पतन
नदी ही सहती है ।।
( 1992 में रचित )
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बहस की सार्थकता
बहस की सार्थकता
तभी है
जब हम,
चिपके न रहें
अपनी
असहमतियों पर
और संशय न करें
अपनी
सहमतियों पर ।।
(अंतिम दो लघु
कविताएं ‘’180 डिग्री का मोड़’’ काव्य-संग्रह से)
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हिन्दी साहित्यिक वेब पत्रिका हिन्दी कुंज में 31 अक्तूबर 2016 को प्रकाशित. लिंक तीन लघु कविताऍं- सिसकते घाव नदी और बहस की सार्थकता सहित पोस्ट ।
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